पूर्व मंत्री, झारखंड सरकार की समन्वय समिति के सदस्य और झारखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष बंधु तिर्की ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले के अनुसार अगर आदिवासियों का उप-जनजातियों में वर्गीकरण और राज्यों द्वारा क्रीमी लेयर का निर्धारण किया जाता है, तो इससे न केवल आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति नष्ट हो जाएगी, बल्कि यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी है।
लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा की मांग
बंधु तिर्की ने इस मामले पर लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा की मांग करते हुए कहा कि यह देश के 13 करोड़ आदिवासियों से सीधे जुड़ा मामला है जो इससे प्रभावित होंगे। उन्होंने कहा कि यह न्यायालय का मामला है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को अपने राजनीतिक स्वार्थ के तहत इस फैसले का फायदा उठाने में मदद मिलेगी।
भाजपा पर आरोप
बंधु तिर्की ने कहा कि भाजपा बांटो और राज करो की नीति पर काम कर रही है। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने आदिवासियों की जमीनी स्थिति और उनकी सभ्यता-संस्कृति, भाषा, सामाजिक स्थिति और आर्थिक परिस्थिति के संदर्भ में जान-बूझकर आदिवासियों का पक्ष न्यायालय के समक्ष मजबूती से नहीं रखा, जिसके कारण यह निराशाजनक निर्णय आया है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का प्रभाव
बंधु तिर्की ने कहा कि अगर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का अक्षरशः पालन किया जाए, तो इससे जनजातीय समुदाय हाशिये पर चला जाएगा। उन्होंने कहा कि मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने ऐसी गंभीर और अवास्तविक परिस्थितियों के पैदा होने की आशंका व्यक्त की थी और जनजातीय शब्द की बजाय आदिवासी शब्द के प्रयोग पर जोर दिया था।
छोटे जनजातीय समूहों का अस्तित्व खतरे में
तिर्की ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को लागू करने के बाद छोटे-छोटे जनजातीय समूहों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने कहा कि लोहरा, महली जैसे कई समुदाय हैं जिनकी जनसंख्या उरांव और मुंडा आबादी की तुलना में बहुत कम है, लेकिन वे सभी एक समान आर्थिक-सामाजिक डोर से बंधे हैं। उन्होंने कहा कि पूरी आबादी के केवल आर्थिक आधार पर वर्गीकरण का खामियाजा अंततः उन्हीं आदिवासियों को भुगतना पड़ेगा और इसका असर आरक्षण और सरकारी योजनाओं के लाभ पर भी होगा।
2004 का ईवी चिन्नैया मामला
बंधु तिर्की ने कहा कि 2004 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि वर्तमान फैसले में ऐसा नहीं है और यह भाजपा की उस नीति की जीत है जिसमें वह आरक्षण की समीक्षा के नाम पर उसे धीरे-धीरे समाप्त करना चाहती है।
अनुसूचित जनजाति की पहचान
तिर्की ने कहा कि संविधान निर्माण के समय बहुत सोच-विचार के बाद अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति शब्द का उपयोग किया गया था और उस भावना के तहत अनुसूचित जनजाति एक समूह है, न कि अलग-अलग वर्ग। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय की बातों को मान भी लिया जाए, तो देश भर में फैले 800 आदिवासी जनजातियों के क्रीमी लेयर का निर्धारण बहुत जटिल है।
लोकुर समिति की रिपोर्ट
तिर्की ने कहा कि 1956 में गठित न्यायाधीश न्यायमूर्ति लोकुर समिति की रिपोर्ट में भी अनुसूचित जनजाति के लिए अनेक मापदंड निर्धारित किए गए हैं। इनमें आदिम लक्षणों के संकेत, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, अन्य समुदायों के साथ संपर्क करने में संकोच या शर्म और आर्थिक पिछड़ापन शामिल हैं। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने केवल आर्थिक स्थिति को प्राथमिकता दी जबकि उनकी सामाजिक स्थिति, संकुचित स्वभाव आदि को नजरअंदाज किया।
सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का महत्व
बंधु तिर्की ने कहा कि केवल जनजातीय समुदाय का वर्गीकरण करते हुए क्रिमी लेयर का निर्धारण करना समझ से परे और देश की विशाल जनजातीय आबादी के साथ अन्याय है। उन्होंने कहा कि जनजातीय आबादी चाहे देश के किसी भी कोने में रहती हो, उनमें सामान्य एकरूपता है जिसे लोकुर समिति ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया है।
आदिवासियों की पहचान का महत्व
बंधु तिर्की ने जोर देकर कहा कि आदिवासियों की पहचान के संदर्भ में आधारभूत मान्यता स्पष्ट है और उसकी अनदेखी कर दिया गया कोई भी फैसला आदिवासियों को स्वीकार नहीं है। उन्होंने कहा कि आदिवासी यह मानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय में माननीय न्यायाधीशों के समक्ष उनकी बातों को प्रमुखता के साथ नहीं रखा गया और न ही जमीनी स्थिति के अनुरूप तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं.