लोकसभा का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। अब तक यही रिवाज़ रहा है लेकिन अब यह रिवाज़ लोगों को खटकने भी लगा। इस बात को उठाने वाले सबसे पहले नेता हैं झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष जयराम महतो। कहते हैं कि, जब बेटी देना हो तो दामाद को देखते हैं ना कि ससुर को।
इस आलोक में अगर अब तक के चुनाव प्रचार को झारखंड में देखें तो स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दे नदारद रहे हैं। भाजपा की ओर से देश की सुरक्षा, 370, राम मंदिर और सनातन पर पूरा जोर है। दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन को अगर देखें तो बेरोजगारी, संविधान की हत्या, पूंजी पत्तियों को लाभ पहुंचाना, ईडी आदि विषयों पर जोर है।
सवाल यह है कि, आखिर यही मुद्दे सबसे जरूरी हैं तो फिर झारखंड के अपने मुद्दे कहां गए। क्या झारखंड में गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी नहीं है। क्या झारखंड में जल, जंगल, जमीन की लड़ाई पूरी हो गई है। क्या झारखंड में आदिवासी मूलवासी समाज का सर्वांगीण विकास हो चुका है। क्या झारखंड जिस उद्देश्य के साथ गठन हुआ उसका मकसद पूरा हो गया है। ऐसे कई सवाल हैं जो राष्ट्रीय पार्टियों यानी बीजेपी और कांग्रेस से पूछा जाना चाहिए।
हैरत की बात यह भी है कि, जो भी क्षेत्रीय पार्टियों हैं वे राष्ट्रीय पार्टियों की पिछलग्गु बनकर रह गई हैं। बात चाहे झारखंड मुक्ति मोर्चा की करें या फिर आजसू की। दोनों ही पार्टियां इंडिपेंडेंट तौर पर झारखंड में अपनी पहचान बनाने में अबतक नाकाम रही हैं। लिहाजा, राजनीतिक तौर पर मजबूरी में इन पार्टियों को किसी ने किसी गठबंधन या फिर किसी ने किसी राष्ट्रीय पार्टी का सहारा लेना पड़ता है। राष्ट्रीय पार्टियों को पता है कि, किस तरह से क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल किया जाना है।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि, जब राष्ट्रीय मुद्दों पर ही वोट पड़ेंगे तो फिर क्षेत्रीय मुद्दों का समाधान कौन करेगा। अब तक इस विषय को जयराम महतो की पार्टी जोर-शोर से उठाती रही है। क्या लोग उनकी तरफ देखेंगे। क्या इस चुनाव में झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा यानी जयराम महतो की पार्टी कोई करिश्मा कर पाएगी। वैसे राजनीति में करिश्मा से ज्यादा समीकरण का महत्व होता है।