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लोहरदगा का दंगल हुआ रोमांचक। झामुमो के चमरा लिंडा की इंट्री से बढ़ी सुखदेव भगत की मुश्किलें। 

झारखंड/बिहार राष्ट्रीय ख़बर विधानसभा चुनाव

लोकसभा चुनाव में सियासत के तमाम रंग देखने को मिल रहे हैं। सभी अपनी-अपनी जुगत में इधर से उधर भटक रहें हैं और अपनी गोटी सेट करने में लगे हुए हैं। कई नौसिखिए भी अपनी बारी के इंतजार में बाजी मार ले रहे हैं। कहीं परिवारवाद की बानगी, तो कहीं टिकट के लिए बागी तेवर और बगावती बोल बोले जा रहे हैं। कई दिग्गज नेता जी तो ऐसे रहे कि टिकट की आस में पलटी मारी. लेकिन गच्चा खा गये। न घर के रहे और न ही घाट के। देखा जाए तो यही राजनीति का दस्तूर और मिजाज है। यहां हसरते इस तरह परवान पर चढ़ती हैं। विचारधाराए भी चारों खाने चित हो जाती है और मर्यादा को तो छोड़िए. ये तो गुजरे जमाने की बात बन मलीन सी हो गयी है।

टिकट की आस पूरी नहीं हुई.

एनीए और इंडिया ने झारखंड में अपने-अपने उम्मीदवारों के नाम का एलान कर दंगल में अपना दावा ठोक दिया है। लेकिन यहां पेंच ये है कि जिनको टिकट नहीं मिला, वो तो बगावती बोल बोल रहे हैं और जंग के मैदान में उतरने के लिए निर्दलीय ही पर्चा भी भर दिया।

लोहरदगा में कुछ ऐसा ही देखने को मिला। जेएमएम के बिशुनपुर विधायक चमरा लिंडा ने चुनावी अखाड़े में अपनी दावेदारी पेश कर दी है. इसके साथ ही इशारों-इशारों में कह भी दिया है कि किसी की बात नहीं मानेंगे और मैदान ए जंग में अपनी ताकत दिखायेंगे. उन आदिवासी-मूलवासी के लिए चुनावी समर उतरेंगे, जिनके उपेक्षा की जा रही है, जिन्हें सदियों से दर्द दिया जा रहा है. उस सरना धर्म कोड को लागू नहीं किया जा रहा. जिसकी आस में आंखे पथरा गयी है. चमरा लिडा के बागी स्वर से जेएमएम भी पशोपेश में है, कि आखिर क्या करे। गठबंधन धर्म के नाते लोहरदगा की सीट कांग्रेस के खाते में गई और वहां से उम्मीदवार सुखदेव भगत हैं। ऐसे में कैसे चमरा लिंडा को उतार सकते थे. लेकिन, लिंडा का साफ कहना है कि उन्होंने दो साल पहले से ही इत्तेला कर दिया था. पर उनकी बाते नजरअंदाज कर दी गई . जिसके चलते उन्होंने निर्दलीय ही चुनावी समर में भाजपा को सबक सीखने के लिए उतरना पड़. हालांकि, इस युवा ने कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ कोई बात नहीं कही और उनके निशाने पर बीजेपी थी, जिससे उनका मुकाबला है।

चमरा लिंडा के बागी तेवर.
अगर लोहरदगा के चुनावी समर के पिछले पन्ने को पढ़ें तो चमरा लिंडा पहले भी लोकसभा के चुनाव में अपनी मौजूदगी दिखा सके हैं. जीत तो उन्हें नसीब नहीं हुई, लेकिन हां उन्होंने ये जरुर दिखाया कि लोहरदगा की जनता के बीच उनकी पकड़ और पैठ गहरी है, ऐसे में उन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता है। झारखंड के वजूद में आने के बाद यहां चार लोकसभा चुनाव हुए, चमरा लिंडा ने 2019 का चुनाव नहीं लड़े. लेकिन, बाकी तीन चुनाव में जनजातीय आरक्षित सीट में यह जतला गये कि उनका प्रभाव और पकड़ है. 2004 और 2014 के चुनाव में चमरा लिंडा तीसरे पोजिशन पर थे. लेकिन, 2009 के रण में दूसरा स्थान हासिल किया था. उनका परफोर्मेंस यह जरुर जतला देता है कि उनमे दम हैं और उन्हें यूं हल्के में नहीं लिया जा सकता.

लोहरदगा में त्रिकोणीय मुकाबला
अगर चमरा लिंड नामकांन वापस नहीं लेते हैं, तो लाजमी है कि लोहरदागा की जंग बेहद दिलचस्प होगी औऱ मुकाबला त्रिकोणीय होगा. बेशक चमरा जीत न पायें. लेकिन, एक फर्क तो ला ही देंगे. क्योंकि अपने बयानों से साफ है कि उनकी अदावत बीजेपी से हैं. ऐसे में कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत का नुकसान होगा औऱ उनका वोट चमरा लिंडा की तरफ शिफ्ट होगा. ऐसे में लोहरदगा से भाजपा उम्मीदवार समीर उरांव को फायदा होगा।

 

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